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6 November 2011

जाने क्यों अक्सर महसूस होता है – दीदी के पत्र से



जाने क्यों अक्सर महसूस होता है कि हम
अलग अलग टापू में जी रहे है
और इसे एक रिश्ते का नाम दे रहे हैं.
पानी कि लकीरों से ये  रिश्ते,
ये रिश्ते  
कभी खून के है,
कभी दोस्ती के,
कभी अनाम कोमल भावनाओं के,
पर लगते एक जैसे है
जोडने से ही जुडते है स्वयं नहीं.
क्योंकि जुडने के लिए हर दो की  चाह जरूरी है
फिर,
इस जरुरत से निपटने पर
सब अपनी अपनी जगह लौट  आते है
जिंदगी के  भागमभाग में शामिल  होने के लिए
कभी खुशी या गम को,
बांट लेने के चाह होती है तो जुड जाते है दूसरे टापू से |
लेकिन ढूंढना पड़ता है
कौन है फुरसत में इन दिनों
और
अगर चाह हो भी तो, किसी खास से जुडने की.
तो फुरसत में आते-आते
इतना बदल जाता है
कि बिलकुल दूसरा हीं हो जाता है
जिसे बाँटना था.

डॉ. अर्चना

प्रतिक्रिया --मैंने जो महसूस किया

जाने क्यों अक्सर महसूस होता है
कि हम अलग अलग टापू में जी रहें है
और इसे ही रिश्ते का नाम दे रहें है.
पानी की तरंगों  के तरह  हैं ये रिश्ते
ये रिश्ते---
कभी खून के
कभी दोस्ती के
कभी अनाम कोमल भावनाओं के
पर लगते कैसे है- एक जैसे
जोडने से ही जुडते है
स्वंय नहीं .
दो जरुरी हैं जुड़ने के लिए 
पर टूटने के लिए.......
शायद  नियति है टूटना नहीं ,
नहीं! नहीं! स्वाभाविक है टूटना
पर जुड़ने में होता है स्वार्थ या
कोई  अनकही  मजबूरी
रिश्तों  में स्वार्थ के अंश नहीं रहते क्यों
हर- दम, हर –पल, हर -क्षण
मुझे बनाना है ऐसे रिश्ते
जो खुदगर्जी  के हो
ऐसे खुदगर्जी जो हर दम, हर पल, साथ रहे
टूटे तो ऐसे, जब सभी ने मारा हो
पानी के तरंगों  की तरह इन रिश्तों  को
 तभी तो
तरंगों  के बाद मिलेगा  के   बाद रिश्ता
जो टूटेगा भी तो,
बिखरेगा नहीं
बिखरेगा तो दिखेगा नहीं –
 हर दम हर पल हर क्षण ....

संजय कुमार
स्टेट बैंक ज्ञानार्जन केंद्र
रायपुर

28 October 2011

कहानी-क्या कुछ बदला है ?

क्या कुछ बदला हैं ?
                      संजय कुमार, मुख्‍य प्रबंधक, स्‍टेट बैंक ज्ञानार्जन केंद्र, रायपुर

रामलाल ने नई साइकिल खरीदी थी| बहुत खुश था वो और अपने घर लौट रहा था| उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर बिजली-बत्ती भी नहीं थी|  अँधेरे में वह एक बड़े से गढ्ढे में गिर गया| बेचारे को जोर से चोट भी लगी और कीचड से लथ-पथ भी हो गया। गढ्ढे से बाहर आने कि हड़बड़ी में वह मोटरसाइकिल पर जा रहे एक छुटभैये नेता से टकरा गया| टक्‍कर खाकर वह भी गढ्ढे में गिर पडा। उसके चम्‍चों ने रामलाल की धुनाई करते हुए कहा-

"सार, तोरा साइकिलों चलाबे ना आवेला"
            (साले, तुम्‍हें साइकिल चलानी भी नहीं आती)
           
            "तोहरा के साइकिल के देहल्‍स"
            (तुम्‍हें ये साइकिल किसने दी ?)

उन लोगों ने उसकी साइकिल भी छीन ली। वह रोता रहा, चिल्‍लाता रहा, पर उसकी सुनने वाला कौन्‍ा था? बेचारे की वर्ष भर की जमा पूँजी भी छिन गई। और अब काम पर जाने में भी समय ज्‍यादा लगेगा।

दस वर्ष पश्‍चात नेताजी एम एल ए बन गए पर आज भी रामलाल पैदल ही काम पर जा रहा है। नेताजी का मोटरसाइकिल प्रेम अभी भी कायम था। वे मोटरसाइकिल पर तफरी करने निकले थे। उनकी मोटरसा‍इकिल ने सडक के किनारे चल रहे रामलाल को पीछे से टक्‍कर मार दी।  टक्‍कर इतने जोर की थी कि उसका दाहिना पैर टूट गया। तभी पीछे से आवाज आई-
            "अबे साले . . . अइसन चलत बार, जैसे रोडवा तोर बाप के हव।"
            (साले, ऐसे चल रहो हो कि सडक तुम्‍हारे बाप ने बनवाई है।)

रामलाल मिमियाते हुए बोला-

            "हुजुर, माई-बाप, हम पीछे कैसे देख सकिला।"
            (मैं पीछे कैसे देख सकता हूँ मालिक)

तभी उसके गाल पर दो झापड(तमाचा) जड दिए गए। वह कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर ये हो क्‍या रहा है, उसके साथ। हॉ दस वर्ष पहले की घटी वह दुर्घटना उसे अवश्‍य याद आ गई। वो सोचने लगा कि हर वक्‍त उसकी ही गलती रहती है। उसे लगा कि अभी भी कुछ नहीं बदला है। देश को आजाद हुए 63 वर्ष होने को आए पर आज भी उसके साथ गुलामों जैसा ही व्‍यवहार किया जा रहा है। आज तो उसे ये जंजीर तोडनी ही होगी, परिस्थिती को बदलनी ही होगी और उसने दो के बदले चार झापड नेताजी के गाल पर जड दिए। वे गुस्‍से से लाल पीले हो गए। चारों तरफ भीड जमा हो गई। हमेशा सोती रहने वाली पुलिस भी दनदनाते हुए घटनास्‍थल पर पहुच गई। आगे और है . . .! ! !

जाने क्यों अक्सर महसूस होता है कि हम

जाने क्यों अक्सर महसूस होता है  – दीदी के पत्र से
जाने क्यों अक्सर महसूस होता है कि हम
अलग अलग टापू में जी रहे है
और इसे एक रिश्ते का नाम दे रहे हैं.
पानी कि लकीरों से ये  रिश्ते,
ये रिश्ते  
कभी खून के है,
कभी दोस्ती के,
कभी अनाम कोमल भावनाओं के,
पर लगते एक जैसे है
जोडने से ही जुडते है स्वयं नहीं.
क्योंकि जुडने के लिए हर दो की  चाह जरूरी है
फिर,
इस जरुरत से निपटने पर
सब अपनी अपनी जगह लौट  आते है
जिंदगी के  भागमभाग में शामिल  होने के लिए
कभी खुशी या गम को,
बांट लेने के चाह होती है तो जुड जाते है दूसरे टापू से |
लेकिन ढूंढना पड़ता है
कौन है फुरसत में इन दिनों
और
अगर चाह हो भी तो, किसी खास से जुडने की.
तो फुरसत में आते-आते
इतना बदल जाता है
कि बिलकुल दूसरा हीं हो जाता है
जिसे बाँटना था.
डॉ. अर्चना

प्रतिक्रिया --मैंने जो महसूस किया

जाने क्यों अक्सर महसूस होता है
कि हम अलग अलग टापू में जी रहें है
और इसे ही रिश्ते का नाम दे रहें है.
पानी की तरंगों  के तरह  हैं ये रिश्ते
ये रिश्ते---
कभी खून के
कभी दोस्ती के
कभी अनाम कोमल भावनाओं के
पर लगते कैसे है- एक जैसे
जोडने से ही जुडते है
स्वंय नहीं .
दो जरुरी हैं जुड़ने के लिए 
पर टूटने के लिए.......
शायद  नियति है टूटना नहीं ,
नहीं! नहीं! स्वाभाविक है टूटना
पर जुड़ने में होता है स्वार्थ या
कोई  अनकही  मजबूरी
रिश्तों  में स्वार्थ के अंश नहीं रहते क्यों
हर- दम, हर –पल, हर -क्षण
मुझे बनाना है ऐसे रिश्ते
जो खुदगर्जी  के हो
ऐसे खुदगर्जी जो हर दम, हर पल, साथ रहे
टूटे तो ऐसे, जब सभी ने मारा हो
पानी के तरंगों  की तरह इन रिश्तों  को
 तभी तो
तरंगों  के बाद मिलेगा  के   बाद रिश्ता
जो टूटेगा भी तो,
बिखरेगा नहीं
बिखरेगा तो दिखेगा नहीं –
 हर दम हर पल हर क्षण ....

संजय कुमार
स्टेट बैंक ज्ञानार्जन केंद्र
रायपुर

एक बूंद


एक बूंद

मैं

पानी की एक छोटी सी बूंद
अकेले,
बहुत अकेले,
जी तो सकती हूँ
जीत नहीं सकती |

अब जब निर्माण नहीं होता
बिध्वंस पहचान बनाता है
हमें नए पोजीशन दिलाता है
अनुकूल सुविधाएँ लाता है |
पर, मैं तो
पानी की छोटी सी बूंद
अकेले, बहुत अकेले
जोड़ तो सकती हूँ
तोड़ नहीँ सकती|
मैं जुड़ी तो अलग कहाँ,
जुडकर अलग नहीं हो सकती |

कहते है लोग,
मझधार नहीं किनारा बनो
पानी की बूंद नहीं
 धारा बनो |

पर मैं पानी की छोटी सी ,
अकेले बहुत अकेले
रो तो सकती हूँ रुला नहीं सकती

अस्तित्व की आश नहीं
असफलता पर उदास नहीं
अनियंत्रित प्यास नहीं

मैं तो
पानी की छोटी सी बूंद हूँ
धारा नहीं|

संजय   कुमार
मुख्य प्रबंधक   
स्टेट बैंक ज्ञानार्जन केंद्र
रायपुर                                           






27 October 2011

क्यों अच्छा लगता है

क्यों अच्छा लगता है?



क्यों अच्छा लगता है?
बिन बात  उलझने में
गले मिलकर हड्डी-पसली एक  करने में
बस में पूरी  सीट छोड़कर
लड़की के बगल में बैठने में
कमरतोड महंगाई में
ब्रांडेड कपड़े खरीदने में.

क्यों अच्छा लगता है?
ऑफिस से कलम चुराने  में
‘ध्रूमपान निषेध जोन’ में धुवाँ उड़ाने  में
लाल बत्ती जल पर जाने पर भी गाड़ी बढ़ाने  में.
अर्थदंड लगने पर गिरगिडाने  में 

क्यों अच्छा लगता है?
सड़क में खड़े पेशाब करने में
रेलवे स्टेशन में लड़कियों को टकटकी लगाने में
हाथ मिलाकर ममोड देने में
पीठ पर  घुस्सा रसीद करने में
हर जगह खुजाने में  

क्यों अच्छा लगता है?
देर रात तक fF  टीवी देखने में
पत्नी के उठ जाने पर चैनेल बदलने में
हत्या और बलात्कार के न्यूज़ पढने में
इन्टरनेट पर नंगी फोटो  देखने में

क्यों अच्छा लगता है?
सोफे पर पसरने  में
ससुराल में अकडने में
बच्चों पर बिगड़ने  में
चैनल बार बार बदलने पर.

क्यों अच्छा लगता है?
बिना बात के बकबकाने में
काम से जी चुराने में
उधारी पचाने में
उंगली नचाने में


क्यों अच्छा लगता है?
क्लास बंक करने में
देर से घर पहुँचने  में
गेस  बुक पढ़ने में

क्यों अच्छा लगता है?
टिप में सौ रुपया देने के बाद
पर गली के  सब्जी वाले से मोल भाव करने में.
और रिक्शा वाले को चवनी` कम देने में.

क्यों अच्छा लगता है?
हेलमेट  लटकाकर गाड़ी चलाने में.
पुलिस को देखकर गाड़ी भगाने में.
धक्का लगने पर दूसरे पर इल्जाम लगाने  में.

क्यों अच्छा लगता है?
क्लास में सोने में
भगवान के पास रोने में
ट्रेन  के बाथ रूम में कमेन्ट लिखने में 
नाक में अंगुली डालने में
दो बार आइसक्रीम खा जाने में
और गुटका चबाने में

क्यों अच्छा लगता है?
मिस कॉल में  बतियाने में
नाख़ून चबाने में
फ्री का दावत उड़ाने में
शराब बंदी एरिया में बीयर पीने में
शब्जी पोलीथिन में लेने में.

क्यों अच्छा लगता है?
फूल चुराने में
कमर लचकाने  में
दुःख दर्द बताने में
सीमा पार कर जाने में.

क्यों अच्छा लगता है?
बोटेल का बोटेल पी जीने में
चोरी के फूल चढ़ाने में
बेसुरा गा, लोग को जगाने में
गन्दा दूसरे के घर में फैलाने  में
मांग कर मैगज़ीन ले जाने में
भूल जाने पर बहाना बनाने में 























क्यों अच्छा लगता है?
क्यों अच्छा लगता है?
बिन बात  उलझने में
गले मिलकर हड्डी-पसली एक  करने में
बस में पूरी  सीट छोड़कर
लड़की के बगल में बैठने में
कमरतोड महंगाई में
ब्रांडेड कपड़े खरीदने में.

क्यों अच्छा लगता है?
ऑफिस से कलम चुराने  में
‘ध्रूमपान निषेध जोन’ में धुवाँ उड़ाने  में
लाल बत्ती जल पर जाने पर भी गाड़ी बढ़ाने  में.
अर्थदंड लगने पर गिरगिडाने  में 

क्यों अच्छा लगता है?
सड़क में खड़े पेशाब करने में
रेलवे स्टेशन में लड़कियों को टकटकी लगाने में
हाथ मिलाकर ममोड देने में
पीठ पर  घुस्सा रसीद करने में
हर जगह खुजाने में  

क्यों अच्छा लगता है?
देर रात तक fF  टीवी देखने में
पत्नी के उठ जाने पर चैनेल बदलने में
हत्या और बलात्कार के न्यूज़ पढने में
इन्टरनेट पर नंगी फोटो  देखने में

क्यों अच्छा लगता है?
सोफे पर पसरने  में
ससुराल में अकडने में
बच्चों पर बिगड़ने  में
चैनल बार बार बदलने पर.

क्यों अच्छा लगता है?
बिना बात के बकबकाने में
काम से जी चुराने में
उधारी पचाने में
उंगली नचाने में


क्यों अच्छा लगता है?
क्लास बंक करने में
देर से घर पहुँचने  में
गेस  बुक पढ़ने में

क्यों अच्छा लगता है?
टिप में सौ रुपया देने के बाद
पर गली के  सब्जी वाले से मोल भाव करने में.
और रिक्शा वाले को चवनी` कम देने में.

क्यों अच्छा लगता है?
हेलमेट  लटकाकर गाड़ी चलाने में.
पुलिस को देखकर गाड़ी भगाने में.
धक्का लगने पर दूसरे पर इल्जाम लगाने  में.

क्यों अच्छा लगता है?
क्लास में सोने में
भगवान के पास रोने में
ट्रेन  के बाथ रूम में कमेन्ट लिखने में 
नाक में अंगुली डालने में
दो बार आइसक्रीम खा जाने में
और गुटका चबाने में

क्यों अच्छा लगता है?
मिस कॉल में  बतियाने में
नाख़ून चबाने में
फ्री का दावत उड़ाने में
शराब बंदी एरिया में बीयर पीने में
शब्जी पोलीथिन में लेने में.

क्यों अच्छा लगता है?
फूल चुराने में
कमर लचकाने  में
दुःख दर्द बताने में
सीमा पार कर जाने में.

क्यों अच्छा लगता है?
बोटेल का बोटेल पी जीने में
चोरी के फूल चढ़ाने में
बेसुरा गा, लोग को जगाने में
गन्दा दूसरे के घर में फैलाने  में
मांग कर मैगज़ीन ले जाने में
भूल जाने पर बहाना बनाने में 



 sanjay kumar







  


26 October 2011

तुमने वादा तो नहीं किया था


तुमने वादा तो नहीं किया था     
तुमने वादा तो नहीं किया था
मगर किया था
नहीं नहीं तुमने नहीं किया था.

मगर,
तुमने देखा था मेरी तरफ,
सोचा  था मेरी तरह,
मेरी हँसी थी तुम्हारी हँसी,
साथ चले थे मेरे साथ
तुमने कुछ भी तो नहीं कहा था
बस देखा था मेरी तरफ
 मैं देखते रह गया था.

हँस कर हाथ थाम लिया था
प्यार तो नहीं किया था. पर देखा  था  मेरी तरफ
तुमने वादा तो नहीं किया था.
पर साथ साथ चले  थे मेरे साथ
परछाईँ  की तरह रहे थे मेरे साथ. 

 जब मैं  दोराहे पर खड़े था
तब तुम्ही तो खड़े थे
 और कहा था---
डरकर मत भागो
अगर मरकर चैन आया तो कहा जाओगे.
तुमने प्यार तो नहीं किया था
पर डाट जो दिया था
पर साथ थे मेरे साथ.

तुमने वादा तो नहीं किया था
पर किया था.....  
संजय कुमार