क्या कुछ बदला हैं ?
संजय कुमार, मुख्य प्रबंधक, स्टेट बैंक ज्ञानार्जन केंद्र, रायपुर
रामलाल ने नई साइकिल खरीदी थी| बहुत खुश था वो और अपने घर लौट रहा था| उबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर बिजली-बत्ती भी नहीं थी| अँधेरे में वह एक बड़े से गढ्ढे में गिर गया| बेचारे को जोर से चोट भी लगी और कीचड से लथ-पथ भी हो गया। गढ्ढे से बाहर आने कि हड़बड़ी में वह मोटरसाइकिल पर जा रहे एक छुटभैये नेता से टकरा गया| टक्कर खाकर वह भी गढ्ढे में गिर पडा। उसके चम्चों ने रामलाल की धुनाई करते हुए कहा-
"सार, तोरा साइकिलों चलाबे ना आवेला"
(साले, तुम्हें साइकिल चलानी भी नहीं आती)
"तोहरा के साइकिल के देहल्स"
(तुम्हें ये साइकिल किसने दी ?)
उन लोगों ने उसकी साइकिल भी छीन ली। वह रोता रहा, चिल्लाता रहा, पर उसकी सुनने वाला कौन्ा था? बेचारे की वर्ष भर की जमा पूँजी भी छिन गई। और अब काम पर जाने में भी समय ज्यादा लगेगा।
दस वर्ष पश्चात नेताजी एम एल ए बन गए पर आज भी रामलाल पैदल ही काम पर जा रहा है। नेताजी का मोटरसाइकिल प्रेम अभी भी कायम था। वे मोटरसाइकिल पर तफरी करने निकले थे। उनकी मोटरसाइकिल ने सडक के किनारे चल रहे रामलाल को पीछे से टक्कर मार दी। टक्कर इतने जोर की थी कि उसका दाहिना पैर टूट गया। तभी पीछे से आवाज आई-
"अबे साले . . . अइसन चलत बार, जैसे रोडवा तोर बाप के हव।"
(साले, ऐसे चल रहो हो कि सडक तुम्हारे बाप ने बनवाई है।)
रामलाल मिमियाते हुए बोला-
"हुजुर, माई-बाप, हम पीछे कैसे देख सकिला।"
(मैं पीछे कैसे देख सकता हूँ मालिक)
तभी उसके गाल पर दो झापड(तमाचा) जड दिए गए। वह कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर ये हो क्या रहा है, उसके साथ। हॉ दस वर्ष पहले की घटी वह दुर्घटना उसे अवश्य याद आ गई। वो सोचने लगा कि हर वक्त उसकी ही गलती रहती है। उसे लगा कि अभी भी कुछ नहीं बदला है। देश को आजाद हुए 63 वर्ष होने को आए पर आज भी उसके साथ गुलामों जैसा ही व्यवहार किया जा रहा है। आज तो उसे ये जंजीर तोडनी ही होगी, परिस्थिती को बदलनी ही होगी और उसने दो के बदले चार झापड नेताजी के गाल पर जड दिए। वे गुस्से से लाल पीले हो गए। चारों तरफ भीड जमा हो गई। हमेशा सोती रहने वाली पुलिस भी दनदनाते हुए घटनास्थल पर पहुच गई। आगे और है . . .! ! !