हम हँसते हैं जग गाता है जब मेघ घने हो जाते हैं, घनघोर अँधेरी रातो में| देख नहीं हम पाते हैं, बिना चाँद की रातों में | अनिष्ट की आशंका से, घबराते हैं, डर जाते हैं | विफलता के क्षण आते हैं, हम खड़े नहीं हम पाते हैं | विश्वास जब डगमग करता हैं, हम रोते है, जग हँसता हैं| पानी टिप-टिप पड़ती हैं, छीटें उसके पड़ते हैं, हम भीग- भीग कर सोते है, सिहरन सिकुडन हम सहते है| जब रिश्तों के ठंढेपन से, | गहरा सदमा लगता है, हम पार नहीं कर पाते है, अलहिदगी तक सह जाते है| रिश्तो में बिखरन होती है, अकेले हम पड जाते है| मेहनत तब रंग लाती है, परिस्थिति नई बनाती है, हम सिखते है कुछ करते है, नई कहानी गढते है| अमीक निशा छट जाती है, प्रतिकूल, अनुकूल बन जाता है नया सबेरा आता है हम हँसते है जग गाता है संजय कुमार अमीक- गहन अलहिदगी-पृथकता |
संबध तो पानी से भरा माथे पर रखा मिट्टी का घड़ा है जिसे बड़ी सावधानी से लेकर पनघट से घर तक लाना पडता है. जरा सी सावधानी हटी कि घड़ा जमीन पर गिर जाता है और पानी भी बह जाता है. इन्ही रिश्तों ने मुझे ताकत दी है कि खुश रह सकूँ.
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24 November 2012
हम हँसते हैं जग गाता है
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वाह क्या बात है
ReplyDeleteUmdaa rachna .......!!
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