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10 October 2012

स्वालम्बन

 स्वालम्बन


लोकल ट्रेन- वही दल्ही  राजहरा वाली| ट्रेन स्टेशन के पहले हीं रुक गयी| सोचा कि उतर जाते है नजदीक पडेगा| बैंक का नीले रंग का प्रतीक चिन्ह जो दिख गया था| जैसे उतरा तो माथा ठोक लिया| गंदी गलियाँ दिखी| नाक भों  सिकोड़ा | हम इस स्थिति को बदल नहीं सकते| जब बदलना कठिन हो, तो अंगीकार करना श्रेयस्कर है| यही सोच कर आगे चला|
धीमी-धीमी बारिश हो रही थी| एक औरत बाहर रोड वाले नल से बर्तन धो रही थी| उसका तीन साल का बेटा छाता लिए उसे बारिश से बचाने की कोशिश  कर रहा था| छाता भी टूटा हुआ था| उसमे एक बड़ा सा छेद था|
उसने कहा, बेटा! तुम छाते के साथ उड़ मत जाना, शायद वह  बारिश और हवा का डर  से सहमी हुई थी|
बेटा बोला, माँ क्या मैं छोटकू हूँ कि उड़ जाऊँगा | उसका विश्वास बोल रहा था|
माँ बोली, बेटा ! छाता ठीक से पकड़ना नहीं तो टूट जायगा| यही छाता लोगों के घर बर्तन धोने के लिए जाते समय काम आता है|
बेटा बोला बड़े जोर से पकड़ा हूँ, देखो न छेद में भी हाथ लगा दिया| कहीं तुम भींग गयी तो बुखार हो जायेगा| फिर मुझे खाना कौन देगा|
 डरते हुए उसने आगे कहा, बड़ी मालकिन क्या काम नहीं करने पर भी खाना देगी|
आगे की बात मैं  सुन न पाया | बैंक जाने की जल्दी जो थी|
 बैंक से वापिस घर पंहुचा तो मेरी पत्नी ने बताया बताओ, बारह साल का छोटा बच्चा साइकिल से ट्यूशन जाता है क्या?
सन्नी भाभी बोल रही थी, आपलोग अजीब आदमी हो जो छोटे से बच्चे को साइकिल से भेजते हो| आप लोग को टैक्सी लगा देना चाहिए| पैसा बचाकर क्या करोगे| राम-राम बच्चे पैदा करना सब कुछ नहीं है उसे प्यार से पालना अहम्  है| ऐसे हीं लोगो के बच्चे दुर्घटना से मरते हैं| अभी पिछले दिनों नेहरु चौक पर घटित घटना याद है न|  यह किसी को पता नहीं था कि रास्ते में मोबाइल पर गाना सुनने के कारण एक तेज आते हुए ट्रक ने बच्चे को मौत के आगोश में ले लिया था|

स्वावलम्बन सिखाने के लिए किये गए प्रयास की तो हवा निकल गयी थी और मन में डर समा गया था| लगा कि मैं नर-पिशाच हो गया हूँ| बार-बार सुबह की घटना याद आ रही थी| लग रहा था कि कभी-कभी अभाव कुछ ज्यादा हीं सिखा देते हैं |
संजय कुमार
मुख्य प्रबंधक

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