प्रतिबिम्ब देखता हूँ रोज गलतियाँ निकालते हुए तुम्हें और हर चूक में किसी न किसी को जिम्मेवार बताते हुए पर मेरे दोस्त! समाज व्यक्ति से बना है यदि समाज के अपराध को तुमने जिया है, तो समाज पर हुए अपराध को किसने किया है. अगर है कुछ है बुरा हाथ मत झाड़ो जरा मत डरो, कुछ करो, जिससे हम बदले जरा. आरोप लगाने से कुछ नहीं होता कुछ भी नहीं होता. एक भागने की आदत है लड़ो, भिड़ो कुछ तो करो सौ 'परसेंट' गाँधी नहीं बन सकते हो तो एक .'परसेंट' बनो. समाज में विसंगतियाँ है, रही हैं पर 'एक' को 'एक' बताओ 'हत्या' और 'बलात्कार' को चटकारे लेकर पढ़ने वाली खबर मत बनाओ दहशत पैदा मत करो विरोध की ताकत ख़तम होती है 'न्यूज़' को उसी रूप में दिखाओ उसमे मिर्च मसाला कम ही लगाओ यदि तब भी, सब कुछ है बुरा तो सच समझ जाओ. कि ------ " तुम अपना ही प्रतिबिम्ब देख रहे हो तभी सब कुछ बुरा समझ रहे हो जब तक हम अपने प्रतिबिम्ब को देखते रहेंगे अपने बारे में ही कहते रहेंगे." संजय कुमार GYANARJANज्ञानार्जन केंद्र रायपुर |
संबध तो पानी से भरा माथे पर रखा मिट्टी का घड़ा है जिसे बड़ी सावधानी से लेकर पनघट से घर तक लाना पडता है. जरा सी सावधानी हटी कि घड़ा जमीन पर गिर जाता है और पानी भी बह जाता है. इन्ही रिश्तों ने मुझे ताकत दी है कि खुश रह सकूँ.
Search This Blog
26 October 2011
प्रतिबिम्ब
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment