मै जन्मी थी
पापा!
जब मैं जन्मी थी
तुम कितने दुखी थे
प्यार भी तो नहीं किया था.
घर दुःख से भरा था
जैसे कोई मरा था
और माँ तुम,
अपने कोख से तो जना था, अपने ही रक्त से सींचा था
तुम्हारे ही शरीर की थी मैं.
पर तुम दौड़ पड़ी थी
ख़तम करने मुंझे
अपने ही शरीर
के टुकडे को.
आह, मैं जन्मी थी
'अनचाही'
हाँ! हाँ! नहीं चाहने पर भी
मैं बड़ी हुई
होना था मुंझे
बड़ी हुई तो जाना अंतर मुझमे और भैया में
तुम दोनों तो थे ऐसे
दुतकार दिया करते थे मुझको
पर प्यार दिया करते थे भईया को
पर , भईया
जिसे आपने ही जना था पर वह आपसे जुदा था
हाँ! ये तो अच्छा हुआ कि आपकी कोंख
से भैया का जनम हुआ
तभी तो 'अनचाहे'
का दर्द कम हुआ
अब मेरे अन्दर पल रहा है
मेरे ही कोख का टुकड़ा
मेरे हीं रक्त से सिंचित
पर वह न होगा अनचाहा
मैंने जाना है दुख दर्द अपनों का
अपनों का दर्द सालता है
बिष सा फ़ैल जाता है रोम रोम में.
मैं नहीं जानती जो पल रहा है
वह क्या है?
पर मुझे होगा
मेरे जैसा हीं कोई
हाँ मेरे जैसा ही कोई
क्योकि मुझे बताना है
भैया और स्वयं
के अंतर को समझाना है
पापा आपको बताना है....
मम्मी आपको समझाना है.....
संजय कुमार
बहुत अच्छी कविता है ॥भावनाओं को सुंदर से बयां किया कया है॥
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